सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार, जाने गंगा तीर्थ का महत्व और विशेषता...

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सारे तीरथ बार बार, गंगा सागर एक बार, जाने गंगा तीर्थ का महत्व और विशेषता...



हिन्दुओं का प्रसिद्ध धार्मिक स्थल "गंगासागर" बंगाल की खाड़ी में स्थित एक द्वीप है। यह कोलकाता से 100 कि.मी. दूर सुंदरबन डेल्टा का हिस्सा है। यह अपनी भौगोलिक विशेषता से ज़्यादा अपनी धार्मिक विशेषता के लिए जाना जाता है। यहाँ पर पवित्र गंगा नदी बंगाल की खाड़ी में प्रवेश करती है, गंगा और सागर के संगम को गंगासागर नाम दिया गया है।


मकर संक्रांति के अवसर पर समुद्र का पानी अपने आप नीचे चला जाता है। ऐसी मान्यता है कि सारे तीर्थों में बार बार स्नान करने से जितना पुण्य मिलता है उतना पुण्य केवल एक बार गंगासागर में स्नान करने से मिल जाता है। प्रत्येक बर्ष मकर संक्रांति के दिन यहाँ तीन दिन का मेला लगता है। कुम्भ मेले के बाद गंगासागर सबसे बड़ा "स्नान मेला" है।



हिन्दू ग्रंथों के अनुसार त्रेता युग में पृथ्वीलोक पर राजा "सगर" का शासन था। अपने श्रेष्ठ कर्मों की वजह से उनकी कीर्ति तीनों लोक में पहुँच चुकी थी। उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया, जिसके कारण देवताओं के राजा इंद्र को अपनी गद्दी हिलती दिख रही थी। इंद्र ने वह अश्व चुरा कर कपिल मुनि के आश्रम के पास छोड़ दिया।



इंद्र की चाल से अनजान कपिल मुनि इस झूठे आरोप से क्रोधित हो गए और उन्होंने राजा सागर के सभी पुत्रों (सैनिको) को अपने तपोवल से भस्म कर दिया और उन्हें पाताल लोक में भेज दिया। जब कपिल मुनि को असल बात पता चली तो वे अपना श्राप वापस तो नहीं ले सकते थे पर उन्होंने राजा सगर के पुत्रों को मोक्ष दिलाने का उपाय बताया।



अगर ब्रह्मा जी के कमंडल में विश्राम कर रही माता गंगा धरती पर नदी के रूप में अवतरित होकर राजा सगर के पुत्रों की अस्थियों को स्पर्श कर लेती हैं तो हिन्दू मान्यताओं के अनुसार उनकी अंतिम क्रिया पूरी हो जाती है। तो वो मोक्ष प्राप्त कर स्वर्ग लोक को चले जाएंगे। राजा सागर के पुत्रों को मोक्ष दिलाने के लिए उनके वंशज राजा भगीरथ ने घोर तपस्या की ताकि माता पार्वती धरती पर आ जाएँ।


अंततः माता गंगा नदी के रूप में धरती पर उतरीं और उनके स्पर्श से राजा सागर के पुत्रों को मोक्ष प्राप्ति हुई। गंगा के सागर में समाने की तिथि हिन्दू पंचांग के अनुसार उत्तरायण या मकर संक्रांति पर होती है। इसीलिए लाखों लोग इस दिन गंगासागर में स्नान करते हैं ताकि वे स्वर्ग प्राप्त कर सकें। इस कहानी पर विश्व के बड़े वैज्ञानिक भी शोध कर रहे हैं।


माता गंगा के जन्म को लेकर भी दो सिद्धांत हैं। पहली मान्यता है वामन अवतार के समय की। जब भगवान् विष्णु ने वामन अवतार लिया था उस समय राजा वलि ने उनके चरण को धोया था, इस जल को ब्रह्मा जी ने अपने कमंडल में रख लिया था। इसी से माँ गंगा का जन्म हुआ था। कुछ विद्वानों का मानना है कि माता सती  गंगा के रूप में उत्पन्न हुईं थी।


इसके अलावा आज के अनेकों वैज्ञानिक और शोधार्थो भी  मुद्र मंथन, गंगा अवतरण और भागीरथ की कहानी पर शोध कर रहे हैं उन लोगो ने भी कुछ निष्कर्ष निकाले हैं। उनमें से कुछ का मानना था कि यमुना और सरस्वती हिमालय से निकलने वाली प्राचीन नदियां थी। हिमालय से निकलकर यमुना नदी पूर्व दिशा में दिल्ली, मथुरा, प्रयाग, काशी, पटना, आदि होते हुए बंगाल की खाड़ी में गिरती थी।


तथा सरस्वती नदी कुरुक्षेत्र, पेहोवा, सिरसा, कालीबंगा, होते हुए अरब सागर में मिलती थी। कालांतर में दोनों नदियों में पानी कम हो गया और इन नदियों के किनारे रहने वाले लोग मरने लगे। तब पूर्व के निवासियों (देवताओं) ने हिमालय से नहर निकालकर गंगा को लाने का निर्णय लिया और इसके लिए तपस्या (परिश्रम) करने में जुट गए।


दो पीढ़ी तक इसमें सफलता न मिल सकी तब तीसरी पीढ़ी के भागीरथ ने पश्चिम के राक्षसों के साथ मिलकर एक साथ प्रयास करने का निर्णय किया और यह तय किया गया कि गंगा के जल को यमुना और सरस्वती दोनों में पहुँचाया जाएगा। इसके लिए जो पहाड़ काटने का काम किया गया वही समुद्र मंथन था। परन्तु इसमें राक्षसों के साथ धोखा हुआ।


जब कोई आख़िरी पहाड़ काटा जा रहा था तब देवताओं ने ऐसी चालाकी की कि गंगा का सारा जल ऋषिकेश, हरिद्वार, कान्हापुर होते हुए "प्रयाग" में यमुना से मिल गया और उसके बाद यमुना में होते हुए गंगा सागर तक पहुँच गया। ऐसा होने से गंगा के मैदान तो हरे भरे हो गए लेकिन सरस्वति घाटी सभ्यता बिना पानी के विलुप्त होती चली गई।


हालांकि इस शोध में कई बातों में विरोधाभास है और कई तथ्य अस्पष्ट हैं इसलिए इसको पूर्ण सत्य नहीं माना जा सकता लेकिन यह शोध कई अन्य शोधार्थियों के लिए प्रेरणा देने का काम तो कर ही सकता है।


एक और कहानी पढ़े...

58 दिन बाणों की शैया पर बिताने के बाद मकर संक्राति को भीष्म पितामह ने त्यागे थे प्राण, इच्छा मृत्यु का वरदान था प्राप्त


18 दिनों तक चले महाभारत के युद्ध में 10 दिन तक लगातार भीष्म पितामह लड़े थे।


महर्षि वेदव्यास की महान रचना महाभारत ग्रंथ के प्रमुख पात्र भीष्म पितामह हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि वे एकमात्र ऐसे पात्र है जो महाभारत में शुरूआत से अंत तक बने रहे। 18 दिनों तक चले महाभारत के युद्ध में 10 दिन तक लगातार भीष्म पितामह लड़े थे। पितामह भीष्म के युद्ध कौशल से व्याकुल पाण्डवों को स्वयं पितामह ने अपनी मृत्यु का उपाय बताया। भीष्म पितामह 58 दिनों तक बाणों की शैया पर रहे लेकिन अपना शरीर नहीं त्यागा क्योंकि वे चाहते थे कि जिस दिन सूर्य उत्तरायण होगा तभी वे अपने प्राणों का त्याग करेंगे।


1.भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था इसलिए उन्होने स्वंय ही अपने प्राणों का सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन त्याग किया।


2.जिस समय महाभारत का युद्ध चला कहते हैं उस समय अर्जुन की उम्र 55 वर्ष, भगवान कृष्ण की उम्र 83 वर्ष और भीष्म पितामह की उम्र 150 वर्ष के लगभग थी।


3.भीष्म पितामह को इच्छा मृत्यु का वरदान स्वयं उनके पिता राजा शांतनु द्वारा दिया गया था क्योंकि अपने पिता की इच्छा को पूरा करने के लिए भीष्म पितामह ने अखंड ब्रह्मचार्य की प्रतिज्ञा ली थी।


4.कहते हैं कि भीष्म पितामह के पिता राजा शांतनु एक कन्या से विवाह करना चाहते थे जिसका नाम सत्यवती था। लेकिन सत्यवती के पिता ने राजा शांतनु से अपनी पुत्री का विवाह तभी करने की शर्त रखी जब सत्यवती के गर्भ से उत्पन्न शिशु को ही वे अपने राज्य का उत्तराधिकारी घोषित करेंगे।


5.राजा शांतनु इस बात को स्वीकार नहीं कर सकते थे क्योंकि उन्होने तो पहले ही भीष्म पितामह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था।


6.सत्यवती के पिता की बात को अस्वीकार करने के बाद राजा शांतनु सत्यवती के वियोग में रहने लगे। भीष्म पितामह को अपने पिता की चिंता की जानकारी हुई तो उन्होने तुरंत अजीवन अविवाहित रहने की प्रतिज्ञा ली।


7.भीष्म पितामह ने सत्यवती के पिता से उनका हाथ राजा शांतनु को देने को कहा और स्वयं के अाजीवन अविवहित रहने का बात कही जिससे उनकी कोई संतान राज्य पर अपना हक ना जता सके।


8.इसके बाद भीष्म पितामह ने सत्यवती को अपने पिता राजा शांतनु को सौंपा। राजा शांतनु अपने पुत्र की पितृभक्ति से प्रसन्न हुए और उन्हे इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।


9.धार्मिक मान्यताओं के हिसाब से कहा जाता है कि भीष्म पितामह ने सूर्य उत्तरायण यानी कि मकर संक्राति के दिन 58 दिनों तक बाणों की शैया पर रहने के बाद अपने वरदान स्वरूप इच्छा मृत्यु प्राप्त की ।


10.सूर्य उत्तरायण के दिन मृत्यु को प्राप्त होने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है और इस दिन भगवान की पूजा का विशेष महत्व है।


इस दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है , भीष्म पितामह भी गंगा पुत्र थे ।

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